Friday, June 4, 2010

Tuesday, June 1, 2010

भौतिकवाद का मार्ग

राजा भोज ने दरबारियों से पूछा कि नष्ट होने वाले की क्या गति होती है? इसका उत्तर कोई दरबारी नहीं दे सका। कवी कालिदास से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस प्रश्न का उत्तर वो कल देंगे।

राजा भोज रोज़ सुबह टहलने जाया करते थे। अगले दिन जब वे टहल कर लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक सन्यासी खड़ा है, और उसके भिक्षा पात्र में मांस के टुकड़े रखे हुए हैं। भोज ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, "अरे भिक्षु! तू सन्यासी होकर मांस का सेवन करता है?"

सन्यासी ने उत्तर दिया," मांस खाने का आनंद बिना शराब के कैसे हो सकता है?"

"क्या शराब भी तुझे अच्छी लगती है?" राजा ने चकित होकर पूछा।

सन्यासी बोला," केवल शराब ही मुझे प्रिय नहीं, वेश्यावृत्ति भी प्यारी है।"

भोज यह सोचकर बहुत दुखी हुए कि उनके राज्य में ऐसे भी सन्यासी हैं जिनकी मांस, शराब और वेश्यावृत्ति में भी रूचि है। उन्होंने पूछा,"अरे वेश्याएं तो धन की इच्छुक होती हैं। तू तो साधू है, तेरे पास तो धन नहीं हो सकता।"

सन्यासी ने जवाब दिया, " में जुआ खेलकर और चोरी करके पैसे इकट्ठे कर लेता हूँ।"

"अरे भीखू तुझे चोरी और जुआ भी प्रिय है?" राजा ने पूछा।

सन्यासी ने कहा," जो व्यक्ति नष्ट होना चाहता हो उसकी और क्या गति हो सकती है?"

राजा भोज समझ गए कि यह कालिदास हैं जो कल की बात का उत्तर दे रहें हैं। तभी कालिदास ने अपने असली रूप में आकर कहा, 'भौतिकवाद का मार्ग ही नष्ट होने का मार्ग है।'

Saturday, April 24, 2010

आलसी कुत्ता

मेरे घर के ऊपर वाले घर में मिस दिवा रहती हैं। अभी नयी नयी ही शिफ्ट हुई हैं इस मकान में। अभी कुछ दिन पहले ही आईं थीं मिलने। हम लोगों की बातों का सिलसिला ऐसा चला कि जल्दी ही हम आपस में घुल मिल गयीं। चीज़ों का आदान प्रदान भी होने लगा। बस, कुछ लोग अच्छे लगने लगते हैं और ऐसा हो जाता है जैसे वर्षों से जानते हों। मेरे यहाँ पहली बार आईं, मेरे कुत्ते स्नूपी को देखा तो अचंभित हुईं। कारण था उसका जाकर बड़े प्यार से उनके पाँव पर चढ़ चढ़ कर उन्हें प्यार करना ।
बोलीं-" इसने मुझे कभी देखा नहीं और यह तो ऐसे प्यार कर रहा है जैसे पता नहीं कितनी बार आपके घर में आ चुकी हूँ।"
" हाँ, यह अजीब प्राणी है। केवल प्यार करना जानता है। कोकस स्पनिएल है। बस बच्चे की तरह है। ग्यारह साल का हो गया है। अगर इसपर मैं गुस्सा करती हूँ तो गुर्रात्ता है। में शैतानी करती हूँ, इसे चिढाती हूँ तो भागता है मेरे पीछे। बेचारे को रास्ता नहीं दीखाई देता, एक वायरस के कारन अपनी आँखों की रोशनी खो बैठा है। जगह जगह टक्कर खाता है पर दौड़ने से बाज नहीं आता। पहले तो बगीचे में जाकर खूब कुलांचे भरता था।" मैं जरा भावुक हो उठी .
बोलीं-" बड़ा प्यारा है।" वह उसके ऊपर हाथ फेरने लगीं। फिर क्या था इतने लाड में आया कि उनकी सिल्क की साडी के चारों ओर घूम घूम कर, पल्ले के एक हिस्से पर आँखें बंद करके लेट गया।
"इसे सिल्क बहुत अच्छी लगती है। अब सो जाएगा।" मैंने उन्हें बताया।
वो हंसने लगीं। बाद में कुछ दुखी होकर बोलीं -" मेरे यहाँ भी कुत्ता है। नाम है 'शेरा'। बूढा हो चला है। बड़ा काम करने भी बहार नहीं जाकर देता । "
" अरे, कुछ नहीं। यह भी ऐसी कोशिश करता है । उठकर नहीं देता। पर बड़ी मुश्किल से ही सही। कहीं-खींचकर उठा ही देते हैं। कुत्ते तो आखिर तक भागा- दौड़ी करते हैं। ऐसा मत कहो ।"- मैंने कहा।
उन्हें पता था कि मैं होम्योपेथी जानती हूँ
बोलीं-" अच्छा! कोई दवाई बताइए उसके लिए ।"
" हाँ, जरूर देख कर बताऊंगी."
कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा। कभी किसी बहाने से वह आ जातीं और कभी मैं चली जाती। पर 'शेरा' कभी दिखाई नहीं दिया। क्यूंकि न शेरा सामने आया न उसकी कोई बात हुई। वे भी भूल जाती थीं।
हमारे बच्चे बचपन में कुत्तों के साथ खेलकर अपना शौक पूरा करके उनकी जवाबदारी हम पर डालकर अपनी अपनी पढाई करने शहर से दूर चले गए थे। हमें भी इनके साथ रहना अच्छा लगता । अकेलेपन को दूर करने का एक साधन बन गए थे। इतने समय से साथ राहत रहते रहते प्यार होना स्वाभाविक भी था । उनका दुःख में दुखी होना और उनकी मस्ती में मनोरंजन करना . जिम्मेदारी जो होती है सो तो होती ही है । एक बार स्नूपी को किसी के यहाँ छोड़कर माँ के यहाँ चली गयी थी तो उसे कहीं से वायरस लग गया था।
दिवा नीचे आती तो जरूर अपने कुत्ते की बिमारी का जिक्र करती। पर जब main ऊपर जाती तो वह भूल जाती थी 'शेरा' के दर्शन कराने। एक दिन मैं उसके लिए एक होम्योपथी दवा लेकर केवल शेरा के लिए दिवा के घर गयी। दोनों पति-पत्नी मिले। संयोग से उस दिन बड़े यत्न से दो नौकर उसका गंद साफ़ करके उसे स्नान करा रहे थे। दिवा कुछ बिस्किट कूट रही थी। मैंने पूछा -"भाई, क्या चल रहा है। बिस्किट तो खुद ही इतने खस्ता होते हैं। इन्हें पीस क्यों रही हो?"
" दीदी, शेरा के लिए पीस रही हूँ। इसमें तो जरा भी हिम्मत नहीं। चूरा करके इसके बर्तन में दाल दूँगी तो खा लेगा नहीं तो दोपहर तक भूखा रहेगा।"- उसने लाचारी के साथ उसकी लाचारी का बखान करते हुए कहा।"देखो ना , कितना गंद फैलाया इसने । बदबू फैला दी सारे घर में।"
" भाई, मैं तो इसके लिए दवाई लायी थी। पर लगता है इसकी कोई दवाई नहीं."-मैंने कहा .
" क्यों, दीदी? होम्योपथी देने में हर्ज ही क्या है , खिला दूँगी। लाइए, दीजिये।"
मैंने कहा -" इन्ही बिस्किट के बीच में डाल दो। पर, तुम तो इसकी बीमारी बढ़ा रहे हो। सब कैसी सेवा में लगे हो। सेवा करनी चाहिए, पर केवल तब जब जरूरत हो।" -शेरा ने आलसी आँखों से मेरी तरफ देखा .
" अरे, इसने तो आँख खोल दीं , कमाल है।" सुनील (दिवा के पति) ने होठों पर ऊँगली रख ली।
मेरी जोरों से हंसी निकल गयी। वे मेरी तरफ प्रश्नभरी निगाहों से देखने लगे। मैंने कहा-" इसे बिस्किट पीस कर खिलाने कि सलाह किसने दी? "
"क्यों, आप ऐसा क्यों कह रही हैं? "
" तुम इसे बिगाड़ रहे भगवान् ने इतने बड़े बड़े दांत दिए हैं इसे। उन्हें इस्तेमाल नहीं करेगा तो टूट जाएंगे।भाई, इतना मोटा हो रहा है यह, बैठे बैठे इस तरह पूजोगे और खाना पीस पीस कर दोगे तो इसे क्या चाहिए। " मैंने उसकी तरफ तर्जनी करते हुए कहा।
बोली-" नहीं-नहीं, यह सचमुच चल फिर नहीं सकता। इसे बाय का दर्द रहता है। इसकी आवाज़ सुनी है कभी आपने ? बस मरने लायक हो गया है ।शायद हमें इसकी सेवा करना हमारे भाग्य में लिखा था। "
" तुम मुझे पहले बता देतीं तो में बाय कि दवा देखती। डॉक्टर के पास ले गए थे क्या?"
नहीं दीदी, ये कहते हैं कि क्यों फिजूल में खर्च करना। जाने वाला तो है ही अब।
UNHONE YEH BAAT KAHI TO MERI NAZAR एक-एक उनके घर में रखे बेशकीमती सामान पर चली गयी। मैं संघ्याशून्य- सी उनकी तरफ देखने लगी।
मुझे 'शेरा' पर बड़ा तरस आया। कुछ नहीं कह पायी ।" - बस, सीधी शेरा के नज़दीक गयी और उसके सामने बैठ कर उससे हंसकर बोली-" क्यों मियाँ! बड़े मजे आ रहे हैं। उठकर थोडा चल लिया करो।" उसने मेरी तरफ देखा और थोडा भौंका। जैसे कह रहा हो कि तुम्हे नहीं मालूम मुझे कैसा दर्द होता है चलने में?।
मैं तो उसके लिए एक्टिव होने कि दवा लायी थी। मैंने उसे अपने हाथ से ही खिला दी। चार-पांच मीठी गोलियां खाकर ही वह जैसे धन्य हो गया। गर्दन इधर-udhar kee. phir baith gaya .
दोनों पति-पत्नी मेरा बच्चा-अवतार निहार रहे थे। मैंने बात आगे बढाते हुए कहा-" जरा एक डंडी लाना। अभी इलाज करती हूँ इसका। यह हड्डी चबा-चबा कर खाने वाला जीव पिसा हुआ भोजन कर रहा है। बड़ी अजीब सी बात है।" - मैंने फिर उसके साथ पंगा लिया।वह गुर्राया।
मैंने कहा -" इसे मेरे साथ भेजो, दो दिन में ठीक न कर दिया तो।" पास ही एक पतली सी झाड़ू की सींक मुझे मिल गयी। मैंने उसके पीछे एक लगाई। तौलिये से chootkar वह लड़ाई की मुद्रा में मुझपर जोरों से भोंकने लगा। मैंने उसे एक और लगाया, मैं पहले से ही तैयार थी। उधर एक कुत्ते की आवाज़ सुनकर नीचे से स्नूपी भी जोर-जोर से भोंकने लगा। और शेरा उसका जवाब देने में लग गया। मैं भागकर उनके ड्राइंग रूम में बंद हो गयी। दिवा धीरे से अन्दर आई , मुझसे लिपट गयी- " थैंक्स दी!"
वह दिन और आज का दिन , आलसी कुत्ता अब रोज सुबह - शाम घूमने जाता है । खाना अब पूरी तरह ठीक से khaataa है और स्नूपी के भौंकने का बराबर भौंक -भौंक कर जवाब भी देता है.
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"

Sunday, April 18, 2010

नयी पौध

मम्मी कुछ समय से अकेली बाज़ार कम ही जाती हैं । अक्सर हम साथ साथ ही जाते हैं। रविवार का दिन था। घर में कुछ ठीक करने के लिए एक मकेनिक को ग्यारह बजे का समय दिया था। इसलिए हम में से एक को तो घर में ही रहना था। मम्मी जल्दी तैयार हो गयीं। सुबह के दस बजे थे। उन्हें बाज़ार से कुछ विशेष चीज़ लानी थी। आजकल दुकानें की तरह जल्दी नहीं खुलतीं। बोलीं --" मैं बाज़ार जा रही हूँ, तू घर में ही रह, क्या पता मकेनिक कब आ जाए।"

मैंने कहा- " दोपहर को दोनों साथ चलेंगे। अभी दुकान भी न खुली होगी।"

बोलीं- " नहीं ! दोपहर को नहीं। बहुत गर्मी हो जाती है। धूप में देखने में भी परशानी होती है। मैं अभी जाऊंगी ! सुबह -सुबह काम हो जाता है तो अच्छा रहता है।"

मैंने कहा-" मम्मी अभी दूकान नहीं खुली होगी। आजकल लोग देरी से घर से निकलते हैं। बेकार तुम्हें वापस आना पड़ेगा।"

पर उन्हें तो उसी समय निकलना था सो निकल गयीं। एक घंटा हो गया न तो मेकेनिक के दर्शन हुए और न ही मम्मी लौटीं। चिंता होने लगी। अन्दर ही अन्दर मुझे यह भी आभास था कि दुकान नहीं खुली होगी। ग्यारह बजे थे। दरवाजे पर घंटी बजी। सामने मम्मी खड़ी थीं। मैंने पूछा -" बड़ी देर लग गयी ! हो गया काम?"

बोलीं--"कहाँ? वहां दूकानदार का इंतज़ार कर रही थी की सामने की दुकान से एक लड़का निकला। उसने मुझसे पूछा कि मैं किसका इंतज़ार कर रही थी। मैंने उसे बताया तो वह मुझे अपनी दूकान में ले गया। मुझे कुर्सी दी, ए सी आन किया। बोला-"आंटी, आप आराम से बैठो। वह दुकान जरा देरी से ही खुलती है। वो लेडी अकेली है , घर का सब काम ख़तम करके दुकान पर आती हैं।"

मैंने कहा भी कि मैं बाद में आ जाऊंगी पर वो बोला कि बैठ जाइए, अब आप कहाँ जाकर वापस आएंगी? बैठी रहिये। बोलीं-" आजकल ऐसे बच्चे कहाँ मिलते हैं जो बड़े लोगों का इतना आदर करते हैं।

मैंने पुछा-" एक घंटे तक क्या बात कर रहे थे?"

बोलीं- " उसने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहती हूँ और भी बहुत सारी बातें कीं । फिर हंसकर बोलीं कि उसने पूछा की वो झाडिया आपकी ही बिल्डिंग में रहता है क्या? तो मैंने कहा -" कौन? नील?" बोला- "हाँ, वही।" कहने लगा -" बड़ी बातें करता है। सुना है, आपकी बिल्डिंग टूटकर नयी बनाने वाले हैं।" मैंने कहा- " हमारी उम्र के लोग घर का सामान लादे-लादे कहाँ भागे फिरेंगे। आदमी घर लेता है आराम से रहने के लिए । ऐसे बिल्डिंग टूट-टूटकर नयी बनती रहीं तो क्या होगा? " उसने मेरे साथ सहानुभूति दिखाई। बातों-बातों में उसने मुझे यह भी बताया कि वह पास वाली बेला -बिल्डिंग में ही रहता है । बड़ा ही मजेदार लड़का लगा मुझे तो।

"उसके पास ग्राहक नहीं आ रहे थे क्या, जो तुमसे इतनी बातें करता जा रहा था."-मैंने पूछा।

मम्मी उसकी तरफदारी करते हुए बोलीं-"उसके सैल्समैन थे न ग्राहक अटेंड करने को। वो तो मालिक है वहां का। वरना तो आज कल के लोग अपनी ही उम्र के लोगों से बात करना चाहते हैं। ऐसे वंडर बच्चे आजकल कहाँ होते हैं। यह बात अपनी जगह सच है कि बाहर निकलते हैं तो मन बहलता है, तरह तरह के लोग मिलते हैं .अच्छा लगता है।"

"चलो, भले ही काम न हुआ हो। मुझे अच्छा लगा कि तुम्हे एक यंग दोस्त तो मिल गया."-मैंने मजाक किया।

"हाँ, सोचती हूँ , पूरी नयी पौध ऐसी हो जाए तो संसार सुखों की खान न हो जाए?"

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कृपया त्रुटियों पर ध्यान न दें। छोटी और बड़ी मात्राएँ अपने आप इस स्क्रिप्ट में गलत आती हैं .--मंजू

Tuesday, April 13, 2010

ek kavita-Mera ghar

mera ghar

भोर भये जब उठती हूँ
नित नया सवेरा तकती हूँ
उगते सूरज की लाली
हरे - हरे आमों की डाली
झुरमुट के अंदर घुस-घुस कर
चिड़ियाँ चूं .. चूं करती हैं
इस डाल से उस डाल पे
इधर उधर गर्दन मटकाती
जाने क्या बतियाती हैं
चूं.. चूं...चूं.....
चूं....चूं... चूं......
जाने क्या क्या कहती हैं
दाना चुगती
इक दूजे से भीड़ जाती हैं
फिर
मेरी खिड़की की
ग्रिल पर
पंख फैला आ जाती हैं
समय हुआ तो
एक एक करके
अपनी राह उड़ जाती हैं
और फिर
मेरे अंतर्मन को
खुशियों से भर जाती हैं .
शाम हुए
वापस आती हैं
मिटटी में खूब नहाती हैं
और कहीं पानी मिल जाये
अपनी प्यास बुझती हैं
दिनभर जैसे थक हार कर
घर में पंथी आता है
वर्षा ऋतू के तो
क्या कहने?
मोती की माला
की लड़ियों में मानकों- सी
एक इधर और एक उधर
डाल -डाल जड़ जाती हैं
ऐसा मेरा सुन्दर घर है

ek vichhar

Monday, April 12, 2010

टी.वी. खबरें क्या सचमुच खबरें हैं?

आजकल दूरदर्शन के न्यूज़ चैनल बॉलीवुड के लिए एक विज्ञापन चैनल बन कर रह गए हैं। इच्छा होती है कि ख़बरें सुनें पर जब भी किसी भारतीय न्यूज़ चैनल पर जाते हैं तो बस, या तो दूरदर्शन पर आने वाले नाटकों के बारे में या उनमे भाग लेने वाले पात्रों और उनकी असल ज़िन्दगी के विषय में घंटों बताया जाता है। वह भी इस हद तक की देखते देखते आदमी बोर हो जाए। पता नहीं क्या सोचते हैं इन ख़बरों का खाका तैयार करने वाले? क्या पूरी दुनिया यही सब देखना और सुनना पसंद करती है ?
और जब कभी केवल न्यूज़ देने का सिलसिला शुरू होता है तो weh aise कि एक ही खबर पूरे दिन आती रहती है, वही शब्द बार-बार दोहराए जातें हैं। जब टी.वी. आन करो वही खबर! फिर ऊपर से तुर्रा यह कि यही चैनल वह खबर पहली बार दर्शकों को दिखा रहा है। यानि न्यूज़ बाद में अपना विज्ञापन पहले! न्यूज़ की पूरी गंभीरता पर पानी फिर जाता है, यह दूरदर्शन वालों को कौन बताये?
क्या दूरदर्शन इन दो बातों का खयाल रखेगा? उस पर काम करने वाले सभी लोग काफी ज्ञानी हैं। कुछ वर्षों पहले न्यूज़ चैनल केवल ख़बरों तक ही सीमित थे। फिर वे इस ट्रेंड के पीछे क्यों पड़े हैं वही जानें।
आमीन!


Friday, April 9, 2010



अच्छा डॉक्टर

अपनी बातों से बीमरी की गंभीरता को कम कर देने वाले डॉक्टर ही अच्छे डॉक्टर माने जातें हैं। हमारे फॅमिली डॉक्टर भी उन्ही में से एक हैं। अभी कुछ समय पहले की ही बात है , मैं उनके पास अपने इलाज के लिए गयी। इलाज का एक महीने का कोर्स था। एक दिन छोड़ कर एक दिन। वे अपने पर्चे पर लिखते रहते थे। एक बार वो भूल गए। उस दिन मेरे पाँव में भयंकर दर्द था । बोले -'' आपको इसलिए ज्यादा दर्द है कि आप परसों नहीं आयीं थीं। इस तरह अगर आप इंजेक्शन मिस करेंगी तो दर्द घटने के बजाय बढ़ जायेगा ।
मैंने कहा के मैं तो आयी थी, इंजेक्शन
लिया था। लेकिन शायद आप लिखना भूल गए। पर मुझे लग रहा था कि आप गहरे सोच में थे।
बोले -" अच्छा? क्या सोच रहा था मैं ?"
"मुझे क्या पता, वह तो आप ही बता सकतें हैं"-मैंने हंसकर कहा।
"तो क्या मैं किसी गर्ल फ्रेंड के बारे में सोच रहा था ?"
" क्या कोई है?"-मैंने चुटकी ली।
" नहीं, नहीं मैं ऐसी जुर्रत नहीं कर सकता, बीवी गुस्सा हो जाएगी।"-
"पर डॉक्टर साहब, गर्ल फ्रेंड का मतलब एक ही होता है क्या? "-मैंने पूछा।
वो हंसने लगे। बोले -" हाँ, बीवी के लिए होता है। फिर बोले-" आप अपना वजन कम कीजिये तभी दर्द कम होगा। आप सोचेंगी कि वैसे तो मेरा भी वजन बढ़ गया है ।"
मैंने कहा -नहीं !आपका तो नहीं बढ़ा। आप तो फिट हैं । मेरा तो उम्र का भी तकाजा है।
बोले - "नहीं! मेरा भी बढ़ा है। आजकल लड़कियां मेरी तरफ नहीं देखतीं। पता चलता है। फिर भी, डॉक्टर होने के नाते आपको जरूर कहूंगा आप अपना वज़न कम करें ."
बाहर आयी तो आधा दर्द गायब हो चुका था।

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Friday, March 19, 2010

sandesh

तुलसी की कुछ पत्तियां मसलकर अपने माथे पर लगायें तो माथे का दर्द कम हो सकता है।
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अलगाववाद: एक टिप्पणी

आज सी.ई.टी। परीक्षा नियमों के विषय में पढ़ा। पढ़कर हैरानी हुई की अपने ही देश में सी.ई.टी परीक्षा में महाराष्ट्र से परीक्षा देने वाले गैर महाराष्ट्रियन विद्यार्थी जिनके माँ -पिता का जन्म महाराष्ट्र में नहीं हुआ, वे प्रोफेशनल डिग्री में प्रवेश नहीं पा सकेंगे। वर्षों से महाराष्ट्र में रह रहे ये विद्यार्थी आखिर जाएँगे कहाँ? नियम बनाने वालों ने यह सोचा? ऐसे नियम शायद किसी और राज्य में नहीं हैं। नियम बनानें वालों को यह सब पता है पर उन्हें मानवता से कोई सरोकार नहीं। राजनीति में नेता के पद पर आसीन होना ही उनका मूल लक्ष्य है। दुनिया जाये खड्डे में! परवाह क्यों हो उन्हें? ये नियम उन्हीं के इशारे पर बने हैं। सोचने की बात यह है की जब हम भिन्न भिन्न भाषा भाषी साथ -साथ उठाते बैठते हैं, बातें करते हैं, साथ में काम करते हैं तो क्या कभी हमारे मन में यह बात आती है की हम अलग अलग प्रदेश से आये हुए अजनबी हैं। अगर कभी यह भावना किसी के दिल में घर करती भी है तो केवल इसलिए की बार बार अलगाव की बातें करके, लोगों को यह विश्वास दिलाया जाता है की पर-प्रांतीय लोग आकर उनका हक छीन रहें हैं। उन्हें आपस में लडवा कर अपना उल्लू सीधा करना ही इनका धर्म होता है। और तो और पढ़े लिखे लोग भी इनके चक्कर में आ जाते हैं। यह नहीं सोचते की अलग-अलग प्रदेश के रंग-बिरंगे रीति रिवाज, विचार, त्यौहार व तरह तरह की भाषाएँ उनके जीवन को कितना सुन्दर बना जाते हैं। सोचो भाई-बहनों, सोचो! जो बात एकता में है अनेकता में है ? अंग्रेजों ने क्या किया था क्या यह हम सब नहीं जानते? वर्षों से साथ साथ प्रेम से रह रहे दो धर्मों के लोगों को अलग कर दो ओर फिर सब पर राज्य करो, उनके देश को लूट ले जाओ। उसी का तो नतीजा है की उन दो भाइयों के बीच आज आतंक का राक्षस खड़ा हो गया है।हमारे देश का इतिहास कहता है की बार-बार देश को अनेक हिस्सों में बांटा गया तभी बाहरी ताकतें आकर हमपर सवार हो गयीं। हमारे दिल और दिमाग के दरवाजे खुलें तो जानें भी। काश, हमारी जनता इस बात को समझ पाती! ये नेता नाम की जो चीज़ है, बड़ी मौका परस्त होती है। फिर भी पता नहीं क्यों जनता एक दुसरे की दुश्मन बनकर इनकी अनुयायी बनी घूमती है। अंग्रेज तो देश से चले गए पर उनकी जगह हमारे देश के नेताओं ने ले ली। पड़ोसियों के घरों पर पत्थर फेंकोगे तो क्या तुम्हारे घर के शीशे नहीं टूटेंगें? किसी कवी का कहा सच ही है --
सभी का जिस्म एक- सा, सभी का खून एक सा,
सभी की जान एक -सी , सभी का दर्द एक-सा ।
और
जनम जुदा, करम जुदा , खुदा जुदा, धरम जुदा,
अभी जो साथ-साथ थे वो चल पड़े जुदा-जुदा।
हैं जातियां अलग-अलग, अलग-अलग हैं बोलियाँ,
खुदगर्जियों की धूम से मिलकर चलाओ होलियाँ।

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Wednesday, March 10, 2010

महिला बिल पर प्रतिक्रिया

महिला बिल पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की थी वह पूरी मिट गयी। वाही शब्द फिर से लिखना इतना करी न होगा वैसे भी कोई कमेन्ट उस पर नहीं था।

Tuesday, March 2, 2010

yadein

चलो अब यादगारों की
पुरानी कोठरी खोलें
कभी कुछ याद करने को
एक चेहरा हो जाए!

कुछ वर्ष पहले लड़कों की शादी में सेहरा लिखा या लिखवाया जाता था । घर का कोई रिश्तेदार या दोस्त यदि कविता लिखना जानता था तो सेहरा वही लिख देता था नहीं तो बाहर किसी और से लिखवा लिया जाता था। बारात लड़की के दरवाजे पर पहुँचती थी तब इसे पढ़ा जाता था। सेहरे में सब घर के प्रिय रिश्तेदारों और बच्चों के नाम कविता की लाइनों में निहित होते थे कम से कम हमने अपने बचपन में अपने पापा को ऐसा करते देखा है। हम बच्चे थे जब मामाजी की बारात में गए थे। बड़ा मजा आया था। मामीजी के द्वार पर जब बारात का आगमन हुआ तो हमारे नौजवान पापा को बाकायदा एक लकड़ी के बने चौंतरे पर चढ़ाया गया। भीड़ में थोड़ी सी हलचल हुई। सबको छपे हुए पेपर नप्किन की आकृति दे रूमाल बांटे गए । बड़ी उत्सुकता थी सबको। पहली तो यह के किस किस के नाम उसमे कहाँ शामिल किये गए थे दूसरी यह के पापा को उनकी ससुराल में सब खूब पसंद करते थे। उधर लड़की वाले बारातियों का स्वागत कर रहे थे । उन्हें जबरदस्ती कंचे वाली बोतलों में लेमों और सोडावाटर में जलजीरा मिला मिलाकर पिलाने में मस्त थे। हम बच्चों को उनका तीखा स्वाद पसंद नहीं था फिर भी आग्रह था के केवल जरा सा मुह छुआ कर रख दें वहीँ पर । बात बचपन में भी समझ से बाहर थी। ऐसे में मामीजी के घर वालों पर तरस आ रहा था । हमें लगा वो स्वागतकर्ता उनका पैसा खराब कर रहे थे। पापा ने सेहरा गाना शुरू किया तो सबकी निगाहों के साथ हमारी दृष्टि भी वहीँ पहुँच गयी। भूल गए एक अजीब से स्वागत को। पापा की तरफ मुड़ गए। लड़की वालों को तो बस स्वागत करना था वे लगे रहे - पर कुछ कविता प्रेमी भी थे । खड़े होकर सुनने लगे। सेहरे के शब्द इस प्रकार थे-

शुभ परिणय की बेला आई जीवन सफल बनाने को
दो राही मिल चले राह पर अपनी मंजिल पाने कों

कल्पवृक्ष के सुमन गूंथकर लायी सुंदर सुरबाला
पुष्पों की पावन लड़ियों में हुई सुशोभित वरमाला
कली कली में शोभा सौरभ, फूल फूल में प्रेम भरा
वरमाला के पुलक परस से नव नूतन जीवन ..

बरदों से वरदान मिला और पुरखों ने पूर्ण विधान दिया
धरती ने संपत्ति सहारा , नभ ने गौरव गान किया
मित्र जनों ने सद्भावों से मधुर प्रेम संचार किया
नगरवासियों ने मंडप में मंगलमय सन्चार किया।

''इन्द्ररानी' चली ह्रदय के श्रद्धा सुमन चढाने कों ,
'आदीश्वर' के सिर पर सेहरा शोभा शान बढाने कों,

'रतीरामजी ' से तो पूछो फूले नहीं समाते हैं ,
अपनी शोभा इस शोभा पर खुलकर आज मिटाते हैं।
और हर्ष के मोती' बाबू केशोजी' बिखरातें हैं ।
अगर कहीं कंजूसी हों तो 'ताराचंद' आ जाते हैं।

मंगलमय हों मिलन और ये अमर बनें पावन घड़ियाँ
हों 'अशोक' जीवन के सपने कभी न टूटें ये लड़ियाँ
हों 'आनंदप्रकाश' राह में, गीतों से मुखरित गलियाँ
'कान्त ' रहे चन्द्रमा तुम्हारा, सूरज चटकाए कलियाँ ॥

प्रियजन, परिजन, मित्र खड़े हैं पग पर पलक बिछाने कों
'अलका' में हों वास, कीर्ति का 'मंजूरश्मि' बिखराने कों ॥

शुभ परिणय की बेला आई जीवन सफल बनाने को
दो राही मिल चले राह पर अपनी मंजिल पाने को ॥