Friday, March 19, 2010

sandesh

तुलसी की कुछ पत्तियां मसलकर अपने माथे पर लगायें तो माथे का दर्द कम हो सकता है।
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अलगाववाद: एक टिप्पणी

आज सी.ई.टी। परीक्षा नियमों के विषय में पढ़ा। पढ़कर हैरानी हुई की अपने ही देश में सी.ई.टी परीक्षा में महाराष्ट्र से परीक्षा देने वाले गैर महाराष्ट्रियन विद्यार्थी जिनके माँ -पिता का जन्म महाराष्ट्र में नहीं हुआ, वे प्रोफेशनल डिग्री में प्रवेश नहीं पा सकेंगे। वर्षों से महाराष्ट्र में रह रहे ये विद्यार्थी आखिर जाएँगे कहाँ? नियम बनाने वालों ने यह सोचा? ऐसे नियम शायद किसी और राज्य में नहीं हैं। नियम बनानें वालों को यह सब पता है पर उन्हें मानवता से कोई सरोकार नहीं। राजनीति में नेता के पद पर आसीन होना ही उनका मूल लक्ष्य है। दुनिया जाये खड्डे में! परवाह क्यों हो उन्हें? ये नियम उन्हीं के इशारे पर बने हैं। सोचने की बात यह है की जब हम भिन्न भिन्न भाषा भाषी साथ -साथ उठाते बैठते हैं, बातें करते हैं, साथ में काम करते हैं तो क्या कभी हमारे मन में यह बात आती है की हम अलग अलग प्रदेश से आये हुए अजनबी हैं। अगर कभी यह भावना किसी के दिल में घर करती भी है तो केवल इसलिए की बार बार अलगाव की बातें करके, लोगों को यह विश्वास दिलाया जाता है की पर-प्रांतीय लोग आकर उनका हक छीन रहें हैं। उन्हें आपस में लडवा कर अपना उल्लू सीधा करना ही इनका धर्म होता है। और तो और पढ़े लिखे लोग भी इनके चक्कर में आ जाते हैं। यह नहीं सोचते की अलग-अलग प्रदेश के रंग-बिरंगे रीति रिवाज, विचार, त्यौहार व तरह तरह की भाषाएँ उनके जीवन को कितना सुन्दर बना जाते हैं। सोचो भाई-बहनों, सोचो! जो बात एकता में है अनेकता में है ? अंग्रेजों ने क्या किया था क्या यह हम सब नहीं जानते? वर्षों से साथ साथ प्रेम से रह रहे दो धर्मों के लोगों को अलग कर दो ओर फिर सब पर राज्य करो, उनके देश को लूट ले जाओ। उसी का तो नतीजा है की उन दो भाइयों के बीच आज आतंक का राक्षस खड़ा हो गया है।हमारे देश का इतिहास कहता है की बार-बार देश को अनेक हिस्सों में बांटा गया तभी बाहरी ताकतें आकर हमपर सवार हो गयीं। हमारे दिल और दिमाग के दरवाजे खुलें तो जानें भी। काश, हमारी जनता इस बात को समझ पाती! ये नेता नाम की जो चीज़ है, बड़ी मौका परस्त होती है। फिर भी पता नहीं क्यों जनता एक दुसरे की दुश्मन बनकर इनकी अनुयायी बनी घूमती है। अंग्रेज तो देश से चले गए पर उनकी जगह हमारे देश के नेताओं ने ले ली। पड़ोसियों के घरों पर पत्थर फेंकोगे तो क्या तुम्हारे घर के शीशे नहीं टूटेंगें? किसी कवी का कहा सच ही है --
सभी का जिस्म एक- सा, सभी का खून एक सा,
सभी की जान एक -सी , सभी का दर्द एक-सा ।
और
जनम जुदा, करम जुदा , खुदा जुदा, धरम जुदा,
अभी जो साथ-साथ थे वो चल पड़े जुदा-जुदा।
हैं जातियां अलग-अलग, अलग-अलग हैं बोलियाँ,
खुदगर्जियों की धूम से मिलकर चलाओ होलियाँ।

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Wednesday, March 10, 2010

महिला बिल पर प्रतिक्रिया

महिला बिल पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की थी वह पूरी मिट गयी। वाही शब्द फिर से लिखना इतना करी न होगा वैसे भी कोई कमेन्ट उस पर नहीं था।

Tuesday, March 2, 2010

yadein

चलो अब यादगारों की
पुरानी कोठरी खोलें
कभी कुछ याद करने को
एक चेहरा हो जाए!

कुछ वर्ष पहले लड़कों की शादी में सेहरा लिखा या लिखवाया जाता था । घर का कोई रिश्तेदार या दोस्त यदि कविता लिखना जानता था तो सेहरा वही लिख देता था नहीं तो बाहर किसी और से लिखवा लिया जाता था। बारात लड़की के दरवाजे पर पहुँचती थी तब इसे पढ़ा जाता था। सेहरे में सब घर के प्रिय रिश्तेदारों और बच्चों के नाम कविता की लाइनों में निहित होते थे कम से कम हमने अपने बचपन में अपने पापा को ऐसा करते देखा है। हम बच्चे थे जब मामाजी की बारात में गए थे। बड़ा मजा आया था। मामीजी के द्वार पर जब बारात का आगमन हुआ तो हमारे नौजवान पापा को बाकायदा एक लकड़ी के बने चौंतरे पर चढ़ाया गया। भीड़ में थोड़ी सी हलचल हुई। सबको छपे हुए पेपर नप्किन की आकृति दे रूमाल बांटे गए । बड़ी उत्सुकता थी सबको। पहली तो यह के किस किस के नाम उसमे कहाँ शामिल किये गए थे दूसरी यह के पापा को उनकी ससुराल में सब खूब पसंद करते थे। उधर लड़की वाले बारातियों का स्वागत कर रहे थे । उन्हें जबरदस्ती कंचे वाली बोतलों में लेमों और सोडावाटर में जलजीरा मिला मिलाकर पिलाने में मस्त थे। हम बच्चों को उनका तीखा स्वाद पसंद नहीं था फिर भी आग्रह था के केवल जरा सा मुह छुआ कर रख दें वहीँ पर । बात बचपन में भी समझ से बाहर थी। ऐसे में मामीजी के घर वालों पर तरस आ रहा था । हमें लगा वो स्वागतकर्ता उनका पैसा खराब कर रहे थे। पापा ने सेहरा गाना शुरू किया तो सबकी निगाहों के साथ हमारी दृष्टि भी वहीँ पहुँच गयी। भूल गए एक अजीब से स्वागत को। पापा की तरफ मुड़ गए। लड़की वालों को तो बस स्वागत करना था वे लगे रहे - पर कुछ कविता प्रेमी भी थे । खड़े होकर सुनने लगे। सेहरे के शब्द इस प्रकार थे-

शुभ परिणय की बेला आई जीवन सफल बनाने को
दो राही मिल चले राह पर अपनी मंजिल पाने कों

कल्पवृक्ष के सुमन गूंथकर लायी सुंदर सुरबाला
पुष्पों की पावन लड़ियों में हुई सुशोभित वरमाला
कली कली में शोभा सौरभ, फूल फूल में प्रेम भरा
वरमाला के पुलक परस से नव नूतन जीवन ..

बरदों से वरदान मिला और पुरखों ने पूर्ण विधान दिया
धरती ने संपत्ति सहारा , नभ ने गौरव गान किया
मित्र जनों ने सद्भावों से मधुर प्रेम संचार किया
नगरवासियों ने मंडप में मंगलमय सन्चार किया।

''इन्द्ररानी' चली ह्रदय के श्रद्धा सुमन चढाने कों ,
'आदीश्वर' के सिर पर सेहरा शोभा शान बढाने कों,

'रतीरामजी ' से तो पूछो फूले नहीं समाते हैं ,
अपनी शोभा इस शोभा पर खुलकर आज मिटाते हैं।
और हर्ष के मोती' बाबू केशोजी' बिखरातें हैं ।
अगर कहीं कंजूसी हों तो 'ताराचंद' आ जाते हैं।

मंगलमय हों मिलन और ये अमर बनें पावन घड़ियाँ
हों 'अशोक' जीवन के सपने कभी न टूटें ये लड़ियाँ
हों 'आनंदप्रकाश' राह में, गीतों से मुखरित गलियाँ
'कान्त ' रहे चन्द्रमा तुम्हारा, सूरज चटकाए कलियाँ ॥

प्रियजन, परिजन, मित्र खड़े हैं पग पर पलक बिछाने कों
'अलका' में हों वास, कीर्ति का 'मंजूरश्मि' बिखराने कों ॥

शुभ परिणय की बेला आई जीवन सफल बनाने को
दो राही मिल चले राह पर अपनी मंजिल पाने को ॥