mera ghar
भोर भये जब उठती हूँ
नित नया सवेरा तकती हूँ
उगते सूरज की लाली
हरे - हरे आमों की डाली
झुरमुट के अंदर घुस-घुस कर
चिड़ियाँ चूं .. चूं करती हैं
इस डाल से उस डाल पे
इधर उधर गर्दन मटकाती
जाने क्या बतियाती हैं
चूं.. चूं...चूं.....
चूं....चूं... चूं......
जाने क्या क्या कहती हैं
दाना चुगती
इक दूजे से भीड़ जाती हैं
फिर
मेरी खिड़की की
ग्रिल पर
पंख फैला आ जाती हैं
समय हुआ तो
एक एक करके
अपनी राह उड़ जाती हैं
और फिर
मेरे अंतर्मन को
खुशियों से भर जाती हैं .
शाम हुए
वापस आती हैं
मिटटी में खूब नहाती हैं
और कहीं पानी मिल जाये
अपनी प्यास बुझती हैं
दिनभर जैसे थक हार कर
घर में पंथी आता है
वर्षा ऋतू के तो
क्या कहने?
मोती की माला
की लड़ियों में मानकों- सी
एक इधर और एक उधर
डाल -डाल जड़ जाती हैं
ऐसा मेरा सुन्दर घर है
Tuesday, April 13, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Hi,so you have become a poetess.Great effort!I can feel the poem.Hopefully i am able to post it to you my sister! rashmi
ReplyDeletegood interesting -- chidiya ankho ke samne aa gai --- good poetry for small children --Neerambuj
ReplyDelete